‘खुश हैं सभी कि मिले हैं सालों बाद, पर कहीं न कहीं एक उदासी भी है। तोप के मुहाने पर खड़ा कर पूछने पर भी ये लड़के ठीक-ठीक नहीं बता पाएँगे अपनी उदासी का कारण। लगाएँगे 'शायद' हर वाक्य से पहले और कहेंगे, ‘यादें संभवतः इस उदासी का मूल कारण है।‘ पेट और प्रतिष्ठा के लिए की जाने वाली नौकरी, या दोस्तों में पसरी अजनबीयत भी हो सकते हैं कुछ और कारण। बातें सुनिए इनकी और देखिये ध्यान से। ज़िक्र हो रहा है उन लड़कियों का जिन्हें ये बेइन्तिहाँ प्यार करते थे। ज़हन में नहीं आता यह ख़्याल कि ज़िक्र होना था इनके गाँव का, जिससे ये उतना ही प्यार करते थे जितनी नफरत भी। जीविका जुटाने के लिए शहर खदेड़े जाने की मजबूरियों का भी ज़िक्र होना था।‘ - ‘घट के भ�... See more
‘खुश हैं सभी कि मिले हैं सालों बाद, पर कहीं न कहीं एक उदासी भी है। तोप के मुहाने पर खड़ा कर पूछने पर भी ये लड़के ठीक-ठीक नहीं बता पाएँगे अपनी उदासी का कारण। लगाएँगे 'शायद' हर वाक्य से पहले और कहेंगे, ‘यादें संभवतः इस उदासी का मूल कारण है।‘ पेट और प्रतिष्ठा के लिए की जाने वाली नौकरी, या दोस्तों में पसरी अजनबीयत भी हो सकते हैं कुछ और कारण। बातें सुनिए इनकी और देखिये ध्यान से। ज़िक्र हो रहा है उन लड़कियों का जिन्हें ये बेइन्तिहाँ प्यार करते थे। ज़हन में नहीं आता यह ख़्याल कि ज़िक्र होना था इनके गाँव का, जिससे ये उतना ही प्यार करते थे जितनी नफरत भी। जीविका जुटाने के लिए शहर खदेड़े जाने की मजबूरियों का भी ज़िक्र होना था।‘ - ‘घट के भी मरा नहीं हूँ’ कहानी से। ‘अपने अपने दरवाज़े‘ की सभी कहानियाँ समकालीन बच्चों, बूढों और नौजवानों का यथार्थवादी बयान है। ‘लगभग मौत’ जहाँ अरुणलता के रूप में हर उस औरत की कहानी कहती है, जिसका, बकौल समाज, ज़बान पर कोई नियंत्रण नहीं है, वहीँ ‘मिठाई मेला और इटैलियन छैला’ बुद्धिजीवी वर्ग की अकर्मण्यता और खोखले ज्ञान के प्रपंच पर तंज कसता है। ‘ग़रीबदास मार्ग’ स्कूल पिकनिक के माध्यम से मजदूरों की अलिखित विरासत और मानवीय कुटिलता का रेखाचित्र खींचती है। ‘अमीरपुर का फ़क़ीर’ धन की अधिकता और उससे उपजते तनाव को दर्शाती है, वहीँ ‘उम्र और एक दिन’ यूरोप दौरे पर निकले एक बुज़ुर्ग दंपत्ति के परस्पर प्रेम और अजीबोग़रीब बलिदान का कालजयी दस्तावेज़ है। ‘अपने अपने दरवाज़े’ वैचारिक स्तर पर एक सूक्ष्म प्रयत्न है पाठकों को उन सभी भावनाओं और स्मृतियों से दोबारा जोड़ने का, जो ना चाहते हुए भी भारतीय चेतना के पटल से लगभग ग़ायब होने की कगार पर है।