मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ? मेरे होने की रूपरेखा क्या है? चहुँ और फैला यह व्यक्त जगत् क्या है? तथाकथित जन्म से लेकर तथाकथित मृत्यु तक ये सब क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है? मुझे कैसे पता चलता है की मैं हूँ? सच में 'मैं' जैसी कोई वस्तु है क्या? इस 'मैं' की क्या वास्तविकता है जाओ मृत्यपर्यंत लौकिक अथवा पारलौकिक उधेड़बुन में व्यस्त रहता है, और अंततः ६*३ हो जाता है? इन प्रश्नों के अतिरिक्त ध्यान कौन करता है और किसका करता है? विचार, भावनाएँ, कामनाएँ, वासनाएँ, इच्छाएँ कैसे और क्यों कर उठती हैं? भय, लोभ, काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या एवम् द्वेष-जैसी वृत्तियाँ सारे प्रयासों के बावजूद क्यों कर साधक का पीछा नहीं छोड़ती? इन-जैसे सभी प्रश्नों क�... See more
मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ? मेरे होने की रूपरेखा क्या है? चहुँ और फैला यह व्यक्त जगत् क्या है? तथाकथित जन्म से लेकर तथाकथित मृत्यु तक ये सब क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है? मुझे कैसे पता चलता है की मैं हूँ? सच में 'मैं' जैसी कोई वस्तु है क्या? इस 'मैं' की क्या वास्तविकता है जाओ मृत्यपर्यंत लौकिक अथवा पारलौकिक उधेड़बुन में व्यस्त रहता है, और अंततः ६*३ हो जाता है? इन प्रश्नों के अतिरिक्त ध्यान कौन करता है और किसका करता है? विचार, भावनाएँ, कामनाएँ, वासनाएँ, इच्छाएँ कैसे और क्यों कर उठती हैं? भय, लोभ, काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या एवम् द्वेष-जैसी वृत्तियाँ सारे प्रयासों के बावजूद क्यों कर साधक का पीछा नहीं छोड़ती? इन-जैसे सभी प्रश्नों के उत्तर तलाशती हुई ये वार्ताएँ हमें निष्कर्ष के उस शिखर पर ला खड़ा करती हैं, जहाँ रह जाती है मात्र स्वयं-का-होना - परिशुद्ध अस्तित्व, जहाँ सारी 'परता' खो जाती है, दुई मिट जाती है, रह जाती है केवल और केवल 'स्वयंता'। इस स्वयंता से तदरूप होकर तब साधक सहज ही मस्त होकर झूमने लगता है, गाने लगता है... मुझे मेरी मस्ती कहाँ लेके आई, जहाँ मेरे अपने सिवा कुछ नाहीं।