ये लिखना एक बे-मा'नी बात होगी कि इस किताब को आये दस साल गुज़र गये और पता नहीं चला, क्यूँकि दस साल क्या अगर किसी की उम्र सौ बरस हो तो उम्र के सौवें बरस में भी उसे ऐसा लगेगा कि जैसे उसका बचपन अभी कल की बात है। हाँ इस दस बरस की मुद्दत के बाद इस किताब में शामिल बेशतर ग़ज़लों के म'आनी ख़ुद मेरे लिए बदल जाना या कई अश'आर का मेरे नज़दीक बे-मा'नी हो जाना शायद एक अहम बात हो सकती है। दुनिया में कुछ और तब्दील हो या ना हो लेकिन म'आनी ज़रूर तब्दील होते हैं और वह भी अल्फ़ाज़ के अपनी जगह क़ायम रहने के बावुजूद..बिल्कुल उस तरह जैसे हम किसी दरिया को रोज़ाना देखें तो हमें वह एक सा लगता है हालाँकि वह मौज जिसे हम आज देखते हैं अगले रोज़ तक कहाँ से कहाँ पहुँच चु�... See more
ये लिखना एक बे-मा'नी बात होगी कि इस किताब को आये दस साल गुज़र गये और पता नहीं चला, क्यूँकि दस साल क्या अगर किसी की उम्र सौ बरस हो तो उम्र के सौवें बरस में भी उसे ऐसा लगेगा कि जैसे उसका बचपन अभी कल की बात है। हाँ इस दस बरस की मुद्दत के बाद इस किताब में शामिल बेशतर ग़ज़लों के म'आनी ख़ुद मेरे लिए बदल जाना या कई अश'आर का मेरे नज़दीक बे-मा'नी हो जाना शायद एक अहम बात हो सकती है। दुनिया में कुछ और तब्दील हो या ना हो लेकिन म'आनी ज़रूर तब्दील होते हैं और वह भी अल्फ़ाज़ के अपनी जगह क़ायम रहने के बावुजूद..बिल्कुल उस तरह जैसे हम किसी दरिया को रोज़ाना देखें तो हमें वह एक सा लगता है हालाँकि वह मौज जिसे हम आज देखते हैं अगले रोज़ तक कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी होती है और कुछ बदनसीब मौजें किसी साहिल से टकराकर मिट्टी में जज़्ब भी हो जाती हैं। अल्फ़ाज़ और म'आनी का रिश्ता किसी दरिया और उसकी मौजों जैसा ही है। अल्फ़ाज़ अपनी जगह क़ायम रहते हैं लेकिन म'आनी मौजों की तरह हरदम रवाँ-दवाँ... ऐसा शायद इसलिए भी है क्यूँकि म'आनी का अल्फ़ाज़ से कोई त'अल्लुक़ ही नहीं होता। दुनिया की तमाम ज़बानें लफ़्ज़ के म'आनी की जगह एक दूसरा लफ़्ज़ देने के बजाये कर ही क्या पायी हैं...