‘फ़िल्म इतिहास और महिलाएँ’ एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा अब आम लगती है। लेकिन यहाँ तक का ये ख़ास सफ़र तय करने में कई दशक लगे हैं। फ़िल्मों की सपनीली बस्ती में, पर्दे के आगे-पीछे महिलाओं की अहम हिस्सेदारी सिनेमा के शुरुआती दिनों से ही रही है। लेकिन दुनिया का फ़िल्म-इतिहास पुरुष फ़िल्मकारों के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानियों से बना है, जिसमें औरतों का नदारद होना बेहद सामान्य बात है। इसे अगर यूँ कहा जाए कि फ़िल्म-इतिहास दरअसल पुरुष-इतिहास है और भारतीय-फ़िल्म-इतिहास उसका एक अध्याय, तो कोई ज़्यादती नहीं होगी। हालाँकि इस सच के प्रभावों को कम करते हुए महिला फ़िल्मकारों की फ़िल्मों, उनकी ज़िंदगियों और काम करने के अनुभवों क�... See more
‘फ़िल्म इतिहास और महिलाएँ’ एक ऐसा विषय है जिसकी चर्चा अब आम लगती है। लेकिन यहाँ तक का ये ख़ास सफ़र तय करने में कई दशक लगे हैं। फ़िल्मों की सपनीली बस्ती में, पर्दे के आगे-पीछे महिलाओं की अहम हिस्सेदारी सिनेमा के शुरुआती दिनों से ही रही है। लेकिन दुनिया का फ़िल्म-इतिहास पुरुष फ़िल्मकारों के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानियों से बना है, जिसमें औरतों का नदारद होना बेहद सामान्य बात है। इसे अगर यूँ कहा जाए कि फ़िल्म-इतिहास दरअसल पुरुष-इतिहास है और भारतीय-फ़िल्म-इतिहास उसका एक अध्याय, तो कोई ज़्यादती नहीं होगी। हालाँकि इस सच के प्रभावों को कम करते हुए महिला फ़िल्मकारों की फ़िल्मों, उनकी ज़िंदगियों और काम करने के अनुभवों को खोजकर सामने लाने की मुहिम ने पिछले दशक में ज़ोर पकड़ा है। भारत की महिला फ़िल्मकारों के काम, नज़रिए और फ़िल्म इंडस्ट्री के माहौल को टटोलती, ये किताब उसी मुहिम को आगे बढ़ाने की एक कोशिश है।