दारुलशफ़ा एक बस्ती भी हो सकती है और संस्था भी, और काल्पनिक होते हुए भी आज की ज़िन्दगी में उस जगह है जहाँ आपाधापी, हिंसा, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और चापलूसी का हमारा जाना-पहचाना यथार्थ, अपने विवरण की प्रखरता के कारण, बिल्कुल अजनबी ढंग से उभरता है और हमारी सामाजिक चेतना पर हमला बोलता है। गहरी मानवीय संवेदनाओं और ठेठ किस्सागोई के दो छोरों में बंधे हिन्दी उपन्यास के संसार में ऐसी बहुत कम मध्यवर्ती कृतियाँ हैं जो सामान्य पाठक को सुपरिचित जिंदगी के बीच से ही ऐसे अनुभवों से गूँथती हों जो उसकी उदासीनता को तोड़ सकें। मुझे विश्वास है कि चिलगोजों, चमचों, चकरबंदों, खुराकियों से भरा-पूरा यह उपन्यास इन्हीं कृतियों। में एक �... See more
दारुलशफ़ा एक बस्ती भी हो सकती है और संस्था भी, और काल्पनिक होते हुए भी आज की ज़िन्दगी में उस जगह है जहाँ आपाधापी, हिंसा, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और चापलूसी का हमारा जाना-पहचाना यथार्थ, अपने विवरण की प्रखरता के कारण, बिल्कुल अजनबी ढंग से उभरता है और हमारी सामाजिक चेतना पर हमला बोलता है। गहरी मानवीय संवेदनाओं और ठेठ किस्सागोई के दो छोरों में बंधे हिन्दी उपन्यास के संसार में ऐसी बहुत कम मध्यवर्ती कृतियाँ हैं जो सामान्य पाठक को सुपरिचित जिंदगी के बीच से ही ऐसे अनुभवों से गूँथती हों जो उसकी उदासीनता को तोड़ सकें। मुझे विश्वास है कि चिलगोजों, चमचों, चकरबंदों, खुराकियों से भरा-पूरा यह उपन्यास इन्हीं कृतियों। में एक होगा। दारुलशफ़ा आज की का असली दस्तावेज़ है। - श्रीलाल शुक्ल