बीसवीं सदी के प्रथम साठ वर्षों में भारत में जो अनेक महान् व्यक्ति हुए, डॉ. भीमराव आम्बेडकर उनमें प्रमुख थे। उन्हें लोग प्रेम से बाबा साहब कहते थे। वे कांग्रेस के नेताओं से देशभक्ति में किसी प्रकार कम नहीं थे। केवल उनकी प्राथमिकताएँ भिन्न थीं। वे दो हजार साल से चले आ रहे सर्वण हिन्दुओं के छल और अत्याचार से लड़ना चाहते थे और सामाजिक समता की स्थापना करना चाहते थे। उनके लिए यह सबसे अधिक महत्त्व का प्रश्न था। वे स्वतन्त्रता के विरोधी नहीं थे। वे तत्काल सत्ता हस्तान्तरण चाहते थे। किन्तु वे यह भी चाहते थे कि स्वतन्त्रता के सूर्य के प्रकाश में दलित वर्गों को उचित स्थान मिले। वे इन दोनों मोर्चों पर नहीं लड़ सकते थे, �... See more
बीसवीं सदी के प्रथम साठ वर्षों में भारत में जो अनेक महान् व्यक्ति हुए, डॉ. भीमराव आम्बेडकर उनमें प्रमुख थे। उन्हें लोग प्रेम से बाबा साहब कहते थे। वे कांग्रेस के नेताओं से देशभक्ति में किसी प्रकार कम नहीं थे। केवल उनकी प्राथमिकताएँ भिन्न थीं। वे दो हजार साल से चले आ रहे सर्वण हिन्दुओं के छल और अत्याचार से लड़ना चाहते थे और सामाजिक समता की स्थापना करना चाहते थे। उनके लिए यह सबसे अधिक महत्त्व का प्रश्न था। वे स्वतन्त्रता के विरोधी नहीं थे। वे तत्काल सत्ता हस्तान्तरण चाहते थे। किन्तु वे यह भी चाहते थे कि स्वतन्त्रता के सूर्य के प्रकाश में दलित वर्गों को उचित स्थान मिले। वे इन दोनों मोर्चों पर नहीं लड़ सकते थे, अतः उन्होंने अपनी शक्ति को राजनैतिक आज़ादी के बजाय सामाजिक अत्याचार की समाप्ति पर केन्द्रित किया। इन्होंने समाज में व्याप्त असंख्य कुरीतियों और अमानवीय कुप्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष करते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। भारत की सामाजिक एकता में घुन की तरह लगी असमानता पर आधारित वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध बिगुल बजाकर उन्होंने सर्व सम्मति से एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की परिकल्पना भारतीय समाज को दी जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं। वहीं दूसरी ओर वे सदियों से उपेक्षित नारी को उसके न्यायोचित अधिकार भारतीय संविधान के माध्यम से दिलाकर ऐतिहासिक क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन के संवाहक बने और नारी के मुक्तिदाता कहलाए। ऐसे महापुरुष की जीवन-कथा है यह पुस्तक।