आज का साहित्य सांस्कृतिक बहुलता को गुंजायमान करता है। यह परिकल्पना अथवा अवधारणा नवराष्ट्रीयता का सबसे वांछनीय स्वर है। इसमें स्वदेशी स्वावलम्बन की भावना है, जो स्वाधीनता के मूल्य को उद्घाटित करती है। भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के समय रूपायित स्वदेशी राष्ट्रीयता की परिष्कृत एवं विकसित संकल्पना है नवराष्ट्रीयता। उसमें अपनी ज़मीन की महक है, बहुस्वरता है, वह आदर्श राष्ट्रीयता है । जब राष्ट्रों की रूपायिति हुई विशेषकर पाश्चात्य जगत् में हिंसा को आधार बनाया गया था । इसलिए वहाँ अब भी हिंसात्मक वृत्ति का बोलबाला ज़ारी रहता है। लेकिन भारत को राष्ट्र बनाने के आदर्श में हिंसा का कोई स्थान नहीं रहा था । इसलिए आ... See more
आज का साहित्य सांस्कृतिक बहुलता को गुंजायमान करता है। यह परिकल्पना अथवा अवधारणा नवराष्ट्रीयता का सबसे वांछनीय स्वर है। इसमें स्वदेशी स्वावलम्बन की भावना है, जो स्वाधीनता के मूल्य को उद्घाटित करती है। भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के समय रूपायित स्वदेशी राष्ट्रीयता की परिष्कृत एवं विकसित संकल्पना है नवराष्ट्रीयता। उसमें अपनी ज़मीन की महक है, बहुस्वरता है, वह आदर्श राष्ट्रीयता है । जब राष्ट्रों की रूपायिति हुई विशेषकर पाश्चात्य जगत् में हिंसा को आधार बनाया गया था । इसलिए वहाँ अब भी हिंसात्मक वृत्ति का बोलबाला ज़ारी रहता है। लेकिन भारत को राष्ट्र बनाने के आदर्श में हिंसा का कोई स्थान नहीं रहा था । इसलिए आज भारत की स्थिति में जो विच्छिन्नता आ गयी उसे एक साथ मिलाकर एक स्वर में अनेक स्वरों को गुंजरित करना है । यह गौरवपूर्ण कार्य समकालीन साहित्य करता रहा है। इसलिए आ 'नवराष्ट्रीयता' एक मानसिक प्रवृत्ति है। जब यह प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है तो किसी प्रान्त या देश के निवासियों में भ्रातृभाव जाग्रत हो जाता है । तब उनमें रूढ़ियों से पैदा होनेवाले भेद पुराने संस्कारों से उत्पन्न होने वाली भिन्नताएँ जैसे जाति, वर्ण, वर्ग, लिंग, वंश और रीति एवं धार्मिक विषमताएँ एक प्रकार से मिट जाती हैं। इसी पुस्तक से