मिर्ज़ा ग़ालिबभारतीय साहित्य की एक गौरान्वित शख्सियत।जन्म (२७, दिसम्बर, १७९७) आगरा में। मत्यु (१५ $फरवरी, १८६९) दिल्ली में।उर्दू और फारसी, दोनों भाषाओं के अज़ीम शाइर और गद्यकार। सन् १८५७ के इन्किलाब पर ‘दस्तंबू’ शीर्षक एक यादगार इतिहासिक पुस्तक लिखी। उर्दू और फारसी में लिखे गए ग़ालिब के असंख्य पत्र, दोनों भाषाओं के साहित्य में उत्कृष्ट दर्जा रखते हैं।सन् १८१६ में ग़ालिब के अपने हाथ से लिखी हुई एक बयाज़ (जिसे ‘नुस्खा-ए-भोपाल’ कहा जाता है) से पता चलता है कि ‘दीवान-ए-गालिब’ (उर्दू) में संकलित अधिकतर गज़लें वे १९ वर्ष की उम्र तक लिख चुके थे इसके बाद वो ज़्यादातर फारसी में लिखते रहे।गालिब ने फारसी में कुल ग्यारह मस्नव... See more
मिर्ज़ा ग़ालिबभारतीय साहित्य की एक गौरान्वित शख्सियत।जन्म (२७, दिसम्बर, १७९७) आगरा में। मत्यु (१५ $फरवरी, १८६९) दिल्ली में।उर्दू और फारसी, दोनों भाषाओं के अज़ीम शाइर और गद्यकार। सन् १८५७ के इन्किलाब पर ‘दस्तंबू’ शीर्षक एक यादगार इतिहासिक पुस्तक लिखी। उर्दू और फारसी में लिखे गए ग़ालिब के असंख्य पत्र, दोनों भाषाओं के साहित्य में उत्कृष्ट दर्जा रखते हैं।सन् १८१६ में ग़ालिब के अपने हाथ से लिखी हुई एक बयाज़ (जिसे ‘नुस्खा-ए-भोपाल’ कहा जाता है) से पता चलता है कि ‘दीवान-ए-गालिब’ (उर्दू) में संकलित अधिकतर गज़लें वे १९ वर्ष की उम्र तक लिख चुके थे इसके बाद वो ज़्यादातर फारसी में लिखते रहे।गालिब ने फारसी में कुल ग्यारह मस्नवियाँ लिखीं। ‘चिराग-ए-दैर’ उनकी तीसरी मस्नवी है। यह बनारस पर लिखी गई कविताओं में श्रेष्ठतम कही जाती है। इसकी एक विशेषता यह भी है कि ईरान, अफगानिस्तान और ताजुबेकिस्तानवासियों को पावन-पुनीत बनारस नगरी की अहमियत और हिन्दुस्तान की अज़मत से परिचित करानेवाली प्रथम और अप्रतिम रचना है। सादिक़जन्म : १० अप्रैल, १९४३ (उज्जैन)आरम्भ से ही उर्दू और हिन्दी भाषाओं में लेखन। कवि, समीक्षक, अनुवादक और चित्रकार।भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य में विशेष रुचि और अध्ययन।उर्दू में शायरी के पाँच और हिन्दी में चार संकलन प्रकाशित। आलोचना और शोध पुस्तकों के अलावा नई मराठी शायरी, नई हिन्दी शायरी और मालवे की लोककथाएँ विशेष तौर पर उल्लेखनीय।उम्र का बड़ा हिस्सा अध्यापन में गुज़ारा।दिल्ली विश्वविद्यालय में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से निवृत्ति के बाद स्वतन्त्र लेखन। आजकल अमीर खुसरौ और ‘खालिक बारी’ पर काम जारी।