novel किसी अस्मिता के उभार की आवश्यक पूर्वशर्त है कि उसका आत्मबोध जाग्रत हो। अस्मिता-विशेष के शोषण से फलने-फूलने वाले कभी नहीं चाहते कि यह आत्मबोध जगे। वे इसे सुलाए रखने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते हैं। रचनाकारों, बुद्धिजीवियों की भूमिका ऐसे में बड़ी निर्णायक हो जाती हैै। वे थोपी गई हीनताओं की पहचान करते-कराते हैं और उसकी काट तलाशते हैं। वे निकट और सुदूर अतीत के उन प्रसंगों, प्रकरणों और घटनाओं को सामने लाते हैं जिनसे सामूहिक चित्त और स्मृति में जड़ीभूत हीनतामूलक अवसाद छँटता है और अस्मिता का स्वत्व आलोकित हो उठता है। भीमा कोरेगाँव की पृष्ठभूमि पर लिखा टेकचंद का यह उपन्यास '500' इसी उद्देश्य से प्रेरित है। जिस सम�... See more
novel किसी अस्मिता के उभार की आवश्यक पूर्वशर्त है कि उसका आत्मबोध जाग्रत हो। अस्मिता-विशेष के शोषण से फलने-फूलने वाले कभी नहीं चाहते कि यह आत्मबोध जगे। वे इसे सुलाए रखने के लिए हर मुमकिन कोशिश करते हैं। रचनाकारों, बुद्धिजीवियों की भूमिका ऐसे में बड़ी निर्णायक हो जाती हैै। वे थोपी गई हीनताओं की पहचान करते-कराते हैं और उसकी काट तलाशते हैं। वे निकट और सुदूर अतीत के उन प्रसंगों, प्रकरणों और घटनाओं को सामने लाते हैं जिनसे सामूहिक चित्त और स्मृति में जड़ीभूत हीनतामूलक अवसाद छँटता है और अस्मिता का स्वत्व आलोकित हो उठता है। भीमा कोरेगाँव की पृष्ठभूमि पर लिखा टेकचंद का यह उपन्यास '500' इसी उद्देश्य से प्रेरित है। जिस समाज में शौर्य को वर्ण विशेष के लिए आरक्षित कर दिया गया हो वहाँ पाँच सौ महारों की एक टुकड़ी द्वारा जन्मजात श्रेष्ठता से उफनाते दो सहस्र पेशवा सैनिकों को धूल चटा देना कथित कॉस्मिक वर्ण व्यवस्था को मिथ्या प्रमाणित करना भी है। पहली जनवरी 1818 को घटी इस ऐतिहासिक घटना का स्मरण दमघोटू 'मेरिटोक्रैसी' की चीडफ़ाड़ भी है। उपन्यास की कथावस्तु बनकर यह तारीख बहुआयामी अर्थों वाली हो जाती है। हिंदी कथा जगत में टेकचंद अपनी बेहतरीन कहानियों के ज़रिए एक मकाम बना चुके हैं। आपका पहला उपन्यास 'दाई' जिस क्षमता का संकेतक था, प्रस्तुत उपन्यास उसे पुष्ट करता हैै। 500 की मुख्य थीम युद्ध है, पेशवा सेना की अप्रत्याशित पराजय है, लेकिन उपन्यास में एक मर्मस्पर्शी प्रेमकथा भी धड़कती है। विकसित होते रिश्तों का बारीक ताना-बाना वस्तु-विन्यास में अंतर्भूत है। उपन्यास की कथा असमाप्य है क्योंकि पेशवाई की हार के बावज़ूद युद्ध थमा नहीं है। —बजरंग बिहारी तिवारी