विमर्श-नवीसी (डिस्कोर्स मैपिंग ) की शैली में लिखे गये इस लम्बे निबंध का मक़सद बहुसंख्यकवाद विरोधी विमर्श के भीतर चलने वाली ज्ञान की राजनीति को सामने लाना है। यह निबंध इस विमर्श के उस हिस्से को मंचस्थ और मुखर भी करना चाहता है जिसे इस राजनीति के दबाव में पिछले चालीस साल से कमोबेश पृष्ठभूमि में रखा गया है। दरअसल, बहुसंख्यकवाद विरोधी राजनीति का वैचारिक अभिलेखागार दो हिस्सों में बँटा हुआ है। सार्वजनिक जीवन में आम तौर पर इसके एक हिस्से की आवाज़ ही सुनाई देती है। दूसरा हिस्सा ठंडे बस्ते में उपेक्षित पड़ा रहता है। नतीजे के तौर पर हिंदुत्व के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष में केवल आधी ताक़त का ही इस्तेमाल हो पा रहा है। स... See more
विमर्श-नवीसी (डिस्कोर्स मैपिंग ) की शैली में लिखे गये इस लम्बे निबंध का मक़सद बहुसंख्यकवाद विरोधी विमर्श के भीतर चलने वाली ज्ञान की राजनीति को सामने लाना है। यह निबंध इस विमर्श के उस हिस्से को मंचस्थ और मुखर भी करना चाहता है जिसे इस राजनीति के दबाव में पिछले चालीस साल से कमोबेश पृष्ठभूमि में रखा गया है। दरअसल, बहुसंख्यकवाद विरोधी राजनीति का वैचारिक अभिलेखागार दो हिस्सों में बँटा हुआ है। सार्वजनिक जीवन में आम तौर पर इसके एक हिस्से की आवाज़ ही सुनाई देती है। दूसरा हिस्सा ठंडे बस्ते में उपेक्षित पड़ा रहता है। नतीजे के तौर पर हिंदुत्व के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष में केवल आधी ताक़त का ही इस्तेमाल हो पा रहा है। सिंहावलोकन करने पर यह भी दिखता है कि विमर्श के जिस हिस्से की उपेक्षा हुई है वह समाज, संस्कृति और राजनीति की जमीन के कहीं अधिक निकट है। दरअसल, विमर्श का मुखर हिस्सा अत्यधिक विचारधारात्मक होने के नाते के तक़रीबन एक आस्था का रूप ले चुका है, जबकि उपेक्षित हिस्सा अधिक शोधपरक और तर्कसंगत समाजवैज्ञानिकता से सम्पन्न है।