यह आत्मकथा-आत्मश्लाघा और बड़बोलेपन की सरहदों से बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है। लेखक ने अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के भौतिक और मानसिक यथार्थ को सादगी से व्यक्त किया है। आत्मकथा का पूरा कलेवर (भाषा, शिल्प, रचना-दृष्टि और काल) अपने समकालीन साहित्य की चुनौतियों को पूरी ईमानदारी के साथ सामने रखता है। वह समाज की बेहतरी के लिए बड़े सवाल भी खड़े करता है। वह अपने वक्त के घिनौनेपन से भयाक्रांत जरूर है, पर एक धैर्य भी है, जो उसे जीवन के हर मोड़ पर सँभलने की शक्ति देता है। सामाजिक समाधान में इसकी भूमिका उस गवाह की तरह है, जो जाति-पाँति और छूआछूत व सामाजिक असमानता के ठेकेदारों को कठघरे में खड़ा करके अपना हलफ़िया बयान दर्ज़... See more
यह आत्मकथा-आत्मश्लाघा और बड़बोलेपन की सरहदों से बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है। लेखक ने अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के भौतिक और मानसिक यथार्थ को सादगी से व्यक्त किया है। आत्मकथा का पूरा कलेवर (भाषा, शिल्प, रचना-दृष्टि और काल) अपने समकालीन साहित्य की चुनौतियों को पूरी ईमानदारी के साथ सामने रखता है। वह समाज की बेहतरी के लिए बड़े सवाल भी खड़े करता है। वह अपने वक्त के घिनौनेपन से भयाक्रांत जरूर है, पर एक धैर्य भी है, जो उसे जीवन के हर मोड़ पर सँभलने की शक्ति देता है। सामाजिक समाधान में इसकी भूमिका उस गवाह की तरह है, जो जाति-पाँति और छूआछूत व सामाजिक असमानता के ठेकेदारों को कठघरे में खड़ा करके अपना हलफ़िया बयान दर्ज़ कराता है। इतना ही नहीं, लेखक ने 'छांग्या रुक्ख' में अपने शोषित और पीड़ित जीवन को पूरे साहित्यिक मानदंडों के साथ व्यक्त कर, सांस्कृतिक धरातल पर उस भाव-बोध का भी अहसास कराया है, जिसे कबीर और नानक ने अपनी साखियों और पदों के जरिये सबसे दुखी इंसान की आत्मा के रूप में दर्शन किए थे। मुझे विश्वास है कि 'छांग्या रुक्ख' का साहित्य की महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में निश्चय ही सम्मान और स्वागत होगा और यह कृति मात्र पंजाबी या हिंदी तक सीमित नहीं रहेगी। - कमलेश्वर