उपन्यास का आगमन उस शून्य को भरने के लिए हुआ जो महाकाव्य के अवसान से पैदा हुआ था । उपन्यास के सामने एक नई दुनिया थी जिसे ईश्वरवादी आस्था और भाग्यवादी विश्वासों से नहीं समझा जा सकता था। तकनीकी विकास और तार्किक विचारों के आघात से समाज का पुराना ढाँचा टूट रहा था और नया जो कुछ बन रहा था उस पर अनिश्चय का कोहरा था । नये मानवीय सम्बन्धों और जीवन-विवेक से उभर रहे प्रश्नों के उत्तर न तो शास्त्र में थे, न ही समाज के पुराने संगठन में । जीवन को रचना में रूपान्तरित करने के लिए उपन्यास के पास कोई बनी-बनाई सैद्धान्तिकी नहीं थी । उसके विषय, रूप और सरोकारों में जो विस्मयकारी विविधता है उसका कारण जीवन के साथ उसका खुला और जीवन्त सम्�... See more
उपन्यास का आगमन उस शून्य को भरने के लिए हुआ जो महाकाव्य के अवसान से पैदा हुआ था । उपन्यास के सामने एक नई दुनिया थी जिसे ईश्वरवादी आस्था और भाग्यवादी विश्वासों से नहीं समझा जा सकता था। तकनीकी विकास और तार्किक विचारों के आघात से समाज का पुराना ढाँचा टूट रहा था और नया जो कुछ बन रहा था उस पर अनिश्चय का कोहरा था । नये मानवीय सम्बन्धों और जीवन-विवेक से उभर रहे प्रश्नों के उत्तर न तो शास्त्र में थे, न ही समाज के पुराने संगठन में । जीवन को रचना में रूपान्तरित करने के लिए उपन्यास के पास कोई बनी-बनाई सैद्धान्तिकी नहीं थी । उसके विषय, रूप और सरोकारों में जो विस्मयकारी विविधता है उसका कारण जीवन के साथ उसका खुला और जीवन्त सम्बन्ध है । एक विधा के रूप में उपन्यास का ढाँचा जब इतना अनिश्चित और गतिमान है तो उसके मूल्यांकन के प्रतिमान स्थिर और फार्मूलाबद्ध कैसे हो सकते हैं? इस किताब में हिन्दी के कुछ कालजयी उपन्यासों का अध्ययन है। कोशिश है कि निष्कर्ष से विश्लेषण करने की बजाय उस जीवन को समझा जाए जो काल्पनिक होते हुए भी उपन्यास के परिसर में सच जैसा है । समाज-विज्ञानों के लिए ग़ैरज़रूरी लेकिन रचना के लिए अनिवार्य प्रसंगों पर मेरी निगाह अधिक टिकी है क्योंकि उन्हीं में वह जीवन है जहाँ मानवीय यथार्थ और उसका भाव-जगत धरती और आकाश की तरह मिलकर नये क्षितिज का निर्माण करते हैं ।