मूल वेदों की संरक्षा के लिए ही हमारे पूर्वजन्मा ऋषियों के द्वारा प्रकृति एवं विकृतिपाठों का विधान किया गया था। प्रकृति अर्थात् मन्त्रों की मूल प्रकृति। यथा - संहिता, पद और कम ये मूल प्रकृतिपाठ हैं। इनमें पदों की आनुपूर्वी क्रम (अनुक्रम) रहता है। विकृति - विकार। इसमें पदों का अनुक्रम और व्युत्क्रम आदि के क्रम से मन्त्रों में योजना की जाती है। जिससे वेद मन्त्रों में कोई भी विकार न हो जाये अर्थात् कुछ भी जोड़ा या घटाया न जा सके। एतदर्थ ऋषि-मुनियों के द्वारा विकृतिपाठ की प्रयोजना की गयी। इनके संरक्षण के लिए आज भी हस्तलेखों के माध्यम से ही प्रकृति एवं विकृतिपाठों का पठन-पाठन हो रहा है। परन्तु छात्रों के द्वारा ह... See more
मूल वेदों की संरक्षा के लिए ही हमारे पूर्वजन्मा ऋषियों के द्वारा प्रकृति एवं विकृतिपाठों का विधान किया गया था। प्रकृति अर्थात् मन्त्रों की मूल प्रकृति। यथा - संहिता, पद और कम ये मूल प्रकृतिपाठ हैं। इनमें पदों की आनुपूर्वी क्रम (अनुक्रम) रहता है। विकृति - विकार। इसमें पदों का अनुक्रम और व्युत्क्रम आदि के क्रम से मन्त्रों में योजना की जाती है। जिससे वेद मन्त्रों में कोई भी विकार न हो जाये अर्थात् कुछ भी जोड़ा या घटाया न जा सके। एतदर्थ ऋषि-मुनियों के द्वारा विकृतिपाठ की प्रयोजना की गयी। इनके संरक्षण के लिए आज भी हस्तलेखों के माध्यम से ही प्रकृति एवं विकृतिपाठों का पठन-पाठन हो रहा है। परन्तु छात्रों के द्वारा हस्तलेखों की हाथ से पुनः प्रतिलिपि कर पढ़ना बहुपरिश्रमसाध्य हो जाता है। इसलिए इन दुर्लभ और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रकृति – विकृतिपाठों के सम्पादन एवं प्रकाशन की उपयोगिता एवं आवश्यकता समझते हुए इनके प्रकाशन का निर्णय किया गया है।