मैं उस आदमी से बहुत प्रभावित हुआ। कितनी अच्छी हिंदी बोलते हैं अंग्रेज होकर भी, भले बिहार में जनमे हों। मैंने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा -
"आपका नाम ?"
"ऑरवेल, जॉर्ज ऑरवेल।"
"जॉर्ज ऑरवेल ! इसी नाम के एक महान् साहित्यकार हुए हैं। यहाँ आने से पहले मैंने उनकी पुस्तक '1984' पढ़ी है। जबरदस्त!"
"झा साहब, मैं वही जॉर्ज ऑरवेल हूँ।"
"इंपॉसिबल ! वह तो 1950 में ही मर चुके हैं।"
"नहीं, मैं सच बोल रहा हूँ। ऐसा होता है। एक तरह से आत्मा को पैरोल पर छोड़ा जाता है।"
राजेंद्र भाई, उसके बाद उसने कुछ ऐसा बताया कि मुझे मानने पर मजबूर होना पड़ा कि सामने बैठा शख्स सचमुच जॉर्ज ऑरवेल की आत्मा ही है।
- इसी संग्रह से
इस संकलन की नौ कहानियाँ मन के खेल के जर... See more
मैं उस आदमी से बहुत प्रभावित हुआ। कितनी अच्छी हिंदी बोलते हैं अंग्रेज होकर भी, भले बिहार में जनमे हों। मैंने बात आगे बढ़ाते हुए पूछा -
"आपका नाम ?"
"ऑरवेल, जॉर्ज ऑरवेल।"
"जॉर्ज ऑरवेल ! इसी नाम के एक महान् साहित्यकार हुए हैं। यहाँ आने से पहले मैंने उनकी पुस्तक '1984' पढ़ी है। जबरदस्त!"
"झा साहब, मैं वही जॉर्ज ऑरवेल हूँ।"
"इंपॉसिबल ! वह तो 1950 में ही मर चुके हैं।"
"नहीं, मैं सच बोल रहा हूँ। ऐसा होता है। एक तरह से आत्मा को पैरोल पर छोड़ा जाता है।"
राजेंद्र भाई, उसके बाद उसने कुछ ऐसा बताया कि मुझे मानने पर मजबूर होना पड़ा कि सामने बैठा शख्स सचमुच जॉर्ज ऑरवेल की आत्मा ही है।
- इसी संग्रह से
इस संकलन की नौ कहानियाँ मन के खेल के जरिए आपको जिंदगी की ऐसी ही टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर ले जाएँगी। आशा है, सफर मनोरंजक होगा। कुछ कहानियाँ लंबी हैं, जिन्हें उपन्यासिका बोला जा सकता है, पर उनमें उतनी ही ज्यादा मन की गहराइयाँ नापने की संभावनाएँ हैं।