नारद के सूत्रों को अगर ठीक से समझा जा सके तो दुनिया में एक नये धर्म का आविर्भाव हो सकता है--एक ऐसे धर्म का जो संसार और परमात्मा को शत्रु न समझे, मित्र समझे--एक ऐसे धर्म का जो जीवन-विरोधी न हो, जीवन-निषेधक न हो, जो जीवन को अहोभाव, आनंद से स्वीकार कर सके।
अनुक्रम
#1: परम प्रेमरूपा है भक्ति
#2: स्वयं को मिटाने की कला है भक्ति
#3: बड़ी संवेदनशील है भक्ति
#4: सहजस्फूर्त अनुशासन है भक्ति
#5: कलाओं की कला है भक्ति
#6: प्रसादस्वरूपा है भक्ति
#7: योग और भोग का संगीत है भक्ति
#8: अनंत के आंगन में नृत्य है भक्ति
#9: हृदय का आंदोलन है भक्ति
#10: परम मुक्ति है भक्ति
#11: शून्य की झील में प्रेम का कमल है भक्ति
#12: अभी और यहीं है भक्ति
#13: शून्य का संगीत है प्रेमा-... See more
नारद के सूत्रों को अगर ठीक से समझा जा सके तो दुनिया में एक नये धर्म का आविर्भाव हो सकता है--एक ऐसे धर्म का जो संसार और परमात्मा को शत्रु न समझे, मित्र समझे--एक ऐसे धर्म का जो जीवन-विरोधी न हो, जीवन-निषेधक न हो, जो जीवन को अहोभाव, आनंद से स्वीकार कर सके।
अनुक्रम
#1: परम प्रेमरूपा है भक्ति
#2: स्वयं को मिटाने की कला है भक्ति
#3: बड़ी संवेदनशील है भक्ति
#4: सहजस्फूर्त अनुशासन है भक्ति
#5: कलाओं की कला है भक्ति
#6: प्रसादस्वरूपा है भक्ति
#7: योग और भोग का संगीत है भक्ति
#8: अनंत के आंगन में नृत्य है भक्ति
#9: हृदय का आंदोलन है भक्ति
#10: परम मुक्ति है भक्ति
#11: शून्य की झील में प्रेम का कमल है भक्ति
#12: अभी और यहीं है भक्ति
#13: शून्य का संगीत है प्रेमा-भक्ति
#14: असहाय हृदय की आह है प्रार्थना-भक्ति
#15: हृदय-सरोवर का कमल है भक्ति
#16: उदासी नहीं--उत्सव है भक्ति
#17: कान्ता जैसी प्रतिबद्धता है भक्ति
#18: एकांत के मंदिर में है भक्ति
#19: प्रज्ञा की थिरता है मुक्ति
#20: अहोभाव, आनंद, उत्सव है भक्ति
जीवन है ऊर्जा--ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं; न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है--अनंत संभावनाओं का। तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए। और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है। मनुष्य कामना है परमात्मा होने की। उससे पहले पड़ाव बहुत हैं, मंजिल नहीं है। रात्रि विश्राम हो सकता है। राह में बहुत जगहें मिल जाएंगी, लेकिन कहीं घर मत बना लेना। घर तो परमात्मा ही हो सकता है। परमात्मा का अर्थ है: तुम जो हो सकते हो, उसकी पूर्णता। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; कहीं आकाश में बैठा कोई रूप नहीं है; कोई नाम नहीं है। परमात्मा है तुम्हारी आत्यंतिक संभावना--आखिरी संभावना, जिसके पार फिर और कोई होना नहीं है; जिसके आगे फिर कोई जाना नहीं है; जहां पहुंच कर तृप्ति हो जाती है, परितोष हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य तब तक पीड़ित रहेगा। तब तक तुम चाहे कितना ही धन कमा लो, कितना ही वैभव जुटा लो, कहीं कोई पीड़ा का कीड़ा तुम्हें भीतर काटता ही रहेगा; कोई बेचैनी सालती ही रहेगी; कोई कांटा चुभता ही रहेगा। लाख करो भुलाने के उपाय--बहुत तरह की शराबें हैं विस्मरण के लिए, लेकिन भुला न पाओगे। और अच्छा है कि भुला न पाओगे; क्योंकि काश, तुम भुलाने में सफल हो जाओ तो फिर बीज बीज ही रह जाएगा, फूल न बनेगा--और जब तक फूल न बने और जब तक मुक्त आकाश को गंध फूल की न मिल जाए, तब तक परितृप्ति कैसी! जब तक तुम अपने परम शिखर को छूकर बिखर न जाओ, जब तक तुम्हारा विस्फोट न हो जाए अनंत में, जब तक तुम्हारी गंगा उसी सागर में वापस न लौट जाए जहां से आई है, तब तक अगर तुम भूल गए तो आत्मघात होगा, तब तक अगर तुमने अपने को भुलाने में सफलता पा ली तो उससे बड़ी और कोई विफलता नहीं हो सकती। अभागे हैं वे जिन्होंने समझ लिया कि सफल हो गए। धन्यभागी हैं वे, जो जानते हैं कि कुछ भी करो, असफलता हाथ लगती है। क्योंकि ये ही वे लोग हैं जो किसी न किसी दिन, कभी न कभी परमात्मा तक पहुंच जाएंगे। —ओशो