अभय मिश्र नदियों के किनारे विचरते हैं, नदियों को सुनते, गुनते और बुनते हैं। नदी और समाज के ताना बाना के बीच वह दर्ज करते हैं कि कैसे हम अपनी नदी को थैक्यू कहना भूल गए हैं । अभय मूलतः पत्रकार हैं और नदी का वह दर्द जो शब्द सीमा के चलते ख़बरों में नहीं समा पाता, उसे अपनी कहानियों में बसाते हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर है और हिंदी में पर्यावरण पर लिखने वाले गिने चुने लेखकों में हैं। इनके दो सौ से ज़्यादा लेख विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं और वेब पोर्टल पर प्रकाशित हैं। उन्हें पर्यावरण पत्रकारिता के क्षेत्र में दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान अनुपम मिश्र मेमोरियल मैडल से ... See more
अभय मिश्र नदियों के किनारे विचरते हैं, नदियों को सुनते, गुनते और बुनते हैं। नदी और समाज के ताना बाना के बीच वह दर्ज करते हैं कि कैसे हम अपनी नदी को थैक्यू कहना भूल गए हैं । अभय मूलतः पत्रकार हैं और नदी का वह दर्द जो शब्द सीमा के चलते ख़बरों में नहीं समा पाता, उसे अपनी कहानियों में बसाते हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर है और हिंदी में पर्यावरण पर लिखने वाले गिने चुने लेखकों में हैं। इनके दो सौ से ज़्यादा लेख विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं और वेब पोर्टल पर प्रकाशित हैं। उन्हें पर्यावरण पत्रकारिता के क्षेत्र में दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान अनुपम मिश्र मेमोरियल मैडल से नवाज़ा गया है। अभय ने अब तक चार बार गोमुख से गंगासागर तक की यात्रा की है। दो नॉन फ़िक्शन और दो फिक्शन टाइटल उनके नाम दर्ज हैं। वर्तमान में अभय मिश्र इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र से जुड़े हैं और नदी संस्कृति परियोजना के माध्यम से नदियों के सांस्कृतिक बहाव को समझने का प्रयास कर रहे हैं।