इच्छा थी कि सबके अंत में, अपने सहृदय पाठकों और साहित्यिक बंधुओं के सम्मुख ‘साकेत’ समुपस्थित करके अपनी धृष्टता और चपलता के लिए क्षमा–याचनापूर्वक बिदा लूंगा । परंतु जो जो लिखना चाहता था, वह आज भी नहीं लिखा जा सका और शरीर शिथिल हो पड़ा । अतएव, आज ही उस अभिलाषा को पूर्ण कर लेना उचित समझता हूं । परंतु फिर भी मेरे मन की न हुई । मेरे अनुज श्री सियारामशरण मुझे अवकाश नहीं लेने देना चाहते । वे छोटे हैं, इसलिए मुझ पर उनका बड़ा अधिकार है । तथापि, यदि अब मैं कुछ लिख सका तो वह उन्हीं की बेगार होगी । उनकी अनुरोध–रक्षा में मुझे संतोष ही होगा । परंतु यदि मुझे पहले ही इस स्थिति की संभावना होती तो मैं इसे और भी पहले पूरा करने का प्रयत्न �... See more
इच्छा थी कि सबके अंत में, अपने सहृदय पाठकों और साहित्यिक बंधुओं के सम्मुख ‘साकेत’ समुपस्थित करके अपनी धृष्टता और चपलता के लिए क्षमा–याचनापूर्वक बिदा लूंगा । परंतु जो जो लिखना चाहता था, वह आज भी नहीं लिखा जा सका और शरीर शिथिल हो पड़ा । अतएव, आज ही उस अभिलाषा को पूर्ण कर लेना उचित समझता हूं । परंतु फिर भी मेरे मन की न हुई । मेरे अनुज श्री सियारामशरण मुझे अवकाश नहीं लेने देना चाहते । वे छोटे हैं, इसलिए मुझ पर उनका बड़ा अधिकार है । तथापि, यदि अब मैं कुछ लिख सका तो वह उन्हीं की बेगार होगी । उनकी अनुरोध–रक्षा में मुझे संतोष ही होगा । परंतु यदि मुझे पहले ही इस स्थिति की संभावना होती तो मैं इसे और भी पहले पूरा करने का प्रयत्न करता और मेरे कृपालु पाठकों को इतनी प्रतीक्षा न करनी पड़ती । निस्संदेह पंद्रह–सोलह वर्ष बहुत होते हैं तथापि इस बीच में इसमें अनेक फेर–फार हुए हैं और ऐसा होना स्वाभाविक ही था ।